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नीमच का वह युवा जब रावी नदी में छलांग लगाकर पहुंचा कश्मीर...तो वहां गिरफ्तार कर लिए गए..आज स्मृति शेष!

भारतवर्ष गुलामी की जंजीरों से आजाद हुआ ही था, देश की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति बदतर थी। उस दौर में एक किसान का बेटा शहर की ओर रुख़ कर निर्धन वर्ग के दर्द को समझा और मन में एक संवेदना जगी कि गरीबों का दर्द दूर होना चाहिए। इस पवित्र उद्देश्य को लेकर समाज सेवा का बीड़ा उठाया,घर-घर गए, गांव-गांव गए और पांव पांव गए। चरैवेति चरैवेति को अपना ध्येय रखा और अंगद के पांव बन गए। उस किसान के बेटे का नाम था खुमान सिंह चौहान। 

देश को आजादी की शीतलता तो मिली परंतु विभाजन रूपी लपटो के साथ। सरदार वल्लभभाई पटेल ने अपनी प्रभाव से सभी रियासतों को भारतवर्ष में विलय कर लिया लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरू का शेख अब्दुल्ला एवं एडविना माउंटेन से लगाव कश्मीर के विलय में स्वायत्तता की बाधा के रूप में सामने आया, जिसे हम धारा 370 के रूप में जानते थे। प्रजा परिषद के बैनर तले पंडित प्रेमनाथ जी डोगरा एवं बलराज जी मधोक के नेतृत्व में एक देश में दो प्रधान, दो विधान, दो निशान, नहीं चलेंगे ...नहीं चलेंगे...आंदोलन का आगाज हुआ। आंदोलन सफल न हो इसलिए तत्कालीन सरकार द्वारा दमनकारी नीति अपनाई गई। हजारों लोगों को पकड़कर जेल में डाल दिया, कश्मीर बहुत कम पहुंचने वाले लोगों में से खुमान सिंह चौहान भी एक थे, जिन्होंने रावी नदी में छलांग लगाकर पार किया एवं कश्मीर पहुंचते ही उन्हें गिरफ्तार कर कठुवा जेल में बंद कर दिया गया। क्योंकि तब कश्मीर में जाने के लिए वीजा की जरूरत थी। कालांतर में जनसंघ के कानपुर अधिवेशन में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने खुमान सिंह चौहान के प्रयासों की सराहना करते हुए उन्हें "शिवाजी"नाम की उपाधि प्रदान की। तब से ही खुमान सिंह चौहान को प्रत्येक व्यक्ति शिवाजी के नाम से जानने लगा, वक्त गुजरता रहा शिवाजी संगठन का कार्य करते रहे। एक समय ऐसा आया की जनसंघ ने किसान के बेटे को विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश शासन के सबसे कद्दावर मंत्री श्री सीताराम जी जाजू के सामने टिकट दिया। कहा तो नीमच शहर के बीचों-बीच जाजू महल कहां भंवरासा के लाल की किराए की झोपड़ी.... झोपड़ी और महल में द्वंद्व हुआ। कयास लगे कि महल की आंधी में झोपड़ी के परखच्चे उड़ जाएंगे। बड़ी कशमकश की स्थिति में जब नतीजे आए तो महल ताश के पत्तों की तरह ढह गया और झोपड़ी रोशनी मे तरबतर हो गई। संगठन कार्य करते हुए अटल बिहारी वाजपेई ,लाल कृष्ण आडवाणी, भैरौसिंह शेखावत, मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह, सुषमा स्वराज आदि से शिवाजी के गहरे रिश्ते हो गए। इसके साथ ही जनसंघ.. जनता पार्टी.. एवं भाजपा को सिंचित करने वाली विशाल संपदा की स्वामिनी राजमाता का स्नेह भी शिवाजी को पुत्रवत प्राप्त हुआ। रियासत की महारानी कालांतर में सियासत की राजमाता के रूप में सामने आई, जिन्होंने शिवाजी को अनेकानेक बार ग्वालियर में भाषण के लिए बुलाया। जैसे रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र को देखकर उनकी प्रतिभा को उनकी शक्तियों को पहचान लिया था उसी प्रकार उनके गुरु ने शिवाजी की शक्ति को पहचान लिया और अपने शिष्य को हमेशा अपने साथ रखा। उन्होंने किसान के बेटे को एग्रीकल्चर से निकालकर असेंबली तक पहुंचा दिया। सबसे आश्चर्य की बात है ग्वालियर राज्यघराने और राष्ट्रीय नेताओं के इतने करीबी होने के बावजूद भी शिवाजी कभी "लक्ष्मी" के मालिक नहीं बन पाए परंतु "सरस्वती" उनसे इस कदर प्रभावित हुई कि वह शिवाजी की दासी बन गई। उनका संगठन के प्रति समर्पण का ही नतीजा था कि उनका कद राजनीति में इतना बड़ा हो गया था कि पद हमेशा उनसे छोटे ही रहे। उन्होंने कभी पद को अपने कद पर हावी नहीं होने दिया। तभी जाकर देश के सर्वोच्च नेता पंडित अटल बिहारी वाजपेई लाखों की भीड़ में मंच के सामने बैठे शिवाजी को पुकारते हुए बोलते है की सज्जनों यह साधारण सा दिखने वाला शख्स वह है जिसने विपरीत परिस्थितियों में संगठन का कार्य किया। संगठन के लिए कश्मीर की जेल में बंद रहे जिन्हें मिनी अटल जी के नाम से भी जाना जाता है कृपया वह मंच पर आए।

किसी ने बिल्कुल सही कहा फल से लदे हुए पेड़ ही झुका करते हैं। फूलों से लदी हुई डालिंया ही महका करती हैं, राजनीति में कई बार ऐसे अवसर आए, जब शिवाजी झुक गये। लेकिन पुष्प की तरह महकते रहे जो झुकता है वह कभी टूटता नहीं। शिवाजी भी कभी नहीं टूटे और इसी का नतीजा रहा की 2008 में 80 साल की उम्र में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष प्रभात जी झां हेलीकॉप्टर से टिकट लेकर शिवाजी को देने उनके घर आए थे। ये बात बढ़ी असहज महसूस हो रही थी लेकिन ऐसा क्यों हुआ, उसके लिए अतीत के पन्ने पलटने की जरूरत है जनसंघ का नाम सुनते ही लोग घरों में दुबक जाते थे। क्योंकि तत्कालीन सरकार का दमन ही इतना था कि लोग डरे डरे से रहते थे। उस दौर में शिवाजी जनसंघ का कार्य करने के लिए घर से निकले थे। एक हाथ में झोला, दो जोड़ी कपड़ा, खाने के लिए चने परमल, घर से निकले तो ठिकाना नहीं था। इसलिए बिछोना धरती को किया और आसमान को ओढ़ा है उन्होंने .....जनसंघ का प्रसार प्रचार करने के लिए शिवाजी खुद भजन कीर्तन करते, गीत गाते, खुद ढोलक बजाते और मंदिरों पर लोगों को इकट्ठा करके जनसंघ की गाथा गाया करते थे। कई गांव में उनका स्वागत पत्थरों से होता... कई गांव में उनका घुसने नहीं दिया जाता। तब कभी वे कुएं की मुंडेर पर, कभी सड़क की पुलिया के नीचे सोए हैं। किसी गांव या शहर में सभा करना होती तो दिन में तांगा लेकर वह खुद शर्ट नेकर पहनकर माइक से अलाउंस किया करते थे की शाम को फलाने चौक पर एक सभा को खुमान सिंह शिवाजी संबोधित करेंगे और शाम को जब शिवाजी धोती कुर्ते में भाषण देते थे तो लोग कानाफुसी करते सुने जाते कि यह तो वही लड़का है जो तांगे में प्रचार कर रहा था। कितनी विकट परिस्थिति में शिवाजी ने संगठन का कार्य किया और इन्हीं तमाम कार्यों का प्रतिफल 2008 में शिवाजी को मिला...

1962 से लगातार 2014 तक शिवाजी नाम का परचम राजनीति के शीर्ष नेतृत्व पर लहराता रहा। अंत में आज जो संगठन के सत्ता के सर्वेसर्वा हैं बीजेपी रूपी विशाल महल के रंगरोगन को देखकर इतराइये मत....वास्तविकता मे आप इस रंगमहल के कंगूरे मात्र हो। सही अर्थों में शिवाजी जैसे अनेक नींव के पत्थरों की दृढ़ता गंभीरता एवं त्यागरुपी पेड़ के आम आप खा रहे हैं।

जय शिवाजी......नमन शिवाजी 

*अनिल सिंह परिहार नीमच*

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